अवन्ती तीर्थ
यह परम आनन्द का विषय है कि तीर्थंकर परमात्मा की साक्षात् अनुपस्थिति में परमात्मा की वाणी एवं परमात्मा की सातिशव् प्रतिमा हमें उपलब्ध है। इस युग में जिनबिंब एवं जिनागम ही हमारे लिये सहारा है। शास्त्रों में कल्याणक भूमियों को तीर्थ माना है। श्री सम्मेतशिखर, अष्टापद, गिरनार, पावापुरी, चंपापुरी आदि तीर्थ इसी परिभाषा में आते हैं। जहाँ अतिशय युक्त परमात्मा की प्रतिमाएं जहाँ बिराजमान है, वे अतिशय तीर्थ कहलाते हैं। श्री नाकोडा, शंखेश्वर, नागेश्वर, जीरावला, अवंति, मक्षी, कापरडा, जैसलमेर आदि तीर्थ इस गणना में आते हैं।
इन तीर्थों के निर्माण, स्थापना के पीछे विशिष्ट इतिहास होता है, चमत्कार की घटनाएं होती हैं। जिसके कारण इन तीर्थों की महिमा पूरे विश्व में प्रसारित होती है। ऐसा ही एक महान् तीर्थ है- श्री अवंति पार्श्वनाथ तीर्थ। जिसका इतिहास परमात्मा के अतिशय और चमत्कारों से ओतप्रोत है। इस तीर्थ में मूलनायक परमात्मा के रूप में अतिप्राचीन वही प्रतिमा बिराजमान है, जिस प्रतिमा का निर्माण अवंति सुकुमाल के द्वारा हुआ था। बहुत पुरानी घटना है। सौ नहीं, पाँच सौ नहीं, हजार नहीं, दो हजार से भी अधिक वर्ष पुरानी घटना है। जैन जगत के मूर्धन्य आचार्य सिद्धसेन दिवाकर उज्जैन नगर में पधार रहे थे। शासन कर रहे थे उस प्रदेश पर सम्राट विक्रमादित्य। सम्राट को जैन धर्म का परिचय अभी हुआ नहीं था। जैन साधु के त्याग से वे अनजान थे। वीतराग मार्ग का उन्हें कोई पता नहीं था। तीर्थंकरों के नाम अभी सुने नहीं थे। सम्राट विक्रम उदार था, परोपकारी था, पर शुद्ध धर्म से अपरिचित था। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर गरुआज्ञा के उल्लंघन का प्रायश्चित्त कर रहे थे। राजा को प्रतिबोध देना, प्रायश्चित्त देना, प्रायश्चित्त विधि का हिस्सा था। आचार्य नंगे पाँव चलकर एक अवधूत बाबा की वेशभूषा में उज्जैन पहुँचे। एक शिवालय मंदिर में जाकर शिवलिंग की ओर अपने पाँव रखकर लेट गये। पुजारियों ने हटाना, डांटना, फटकारना शरू किया परन्तु आचार्य श्री मुस्कराते रहे। महादेव के मंदिर का अपमान करना, उन्हें इष्ट नहीं था। यहां वर्षों से छिपे एक महान सत्य को प्रकट करना उनका लक्ष्य था। वे शब्द भावों से परिपूर्ण होकर एक अनूठे लक्ष्य के साथ जागते हुए सो रहे थे, सोते हुए जाग रहे थे। भगवान का ऐसा अपमान। घोर अपमान|| उसे सजा दी जाये। सम्राट ने कोड़े फटकारने की सजा सुनाई। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के शरीर पर कोड़ों की मार पड़ने लगी। पर आश्चर्य! आचार्यश्री को कोई दर्द नहीं हो रहा था। मार के कोई निशान उनके शरीर पर नहीं पड़ रहे थे। आचार्यश्री मुस्करा रहे थे। उनकी मुस्कुराहट ने पुजारियों के रोष को दुगुना कर दिया। वे और जोर से मार रहे थे। पर चकित थे कि मार इन्हें लग क्यों नहीं रही है? उन्हें क्या पता था कि मार इन्हें नहीं, किसी और को लग रही है। हाँ। यह मार लग रही थी सम्राट विक्रम की रानियों को। न कोड़ा नजर आ रहा था, न चाबुक नजर आ रहा था, न फटकारने वाला नजर आ रहा था। पर शरीर नीला हुआ जा रहा था। रानियाँ चीख रही थी, चिल्ला रही थी, रो रही थी। उनके क्रन्दन को सुनकर राजा दौड़ पड़े। कुछ नजर नहीं आ रहा था, कुछ समझ नहीं आ रहा था। अचानक सम्राट को याद आया पुजारी को दिया आदेश। उन्हें लगा रानियों पर पड़ रही इस अदृश्य मार का उस आदेश के साथ कोई न कोई संबंध है।
वह बिना एक पल गवांये दौड़ पड़ा शिवमंदिर की ओर, रोका तुरन्त पुजारियों को। बाबा अभी भी मुस्कुरा रहा था। सम्राट विक्रम ने तेजस्विता से परिपूर्ण ललाट देखा। गहरी और निश्चल निर्दोष आखें देखी। चमकता-दमकता चेहरा देखा। उसके हाथ स्वतः जुड़ गये। नमस्कार की भाषा उसके होठों से निकल पड़ी। महात्मन्। मेरा अपराध क्षमा करें। बताएं कि आप हैं कौन? आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने हल्की-सी मुस्कुराहट के साथ संक्षेप में उत्तर दिया- साधु हूँ। महात्मन्। आप शिवलिंग की ओर पाँव करके। आसातना ना करें। भगवन्! आप इनकी स्तुति करें। नहीं राजन्। ये भगवान मेरी स्तुति नहीं सह पायेंगे। आप कीजिये तो सही। और वातावरण में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर की गहन, मधुर आवाज गूंजने लगी- कल्याण मंदिर मुदार! संस्कृत भाषा के स्वरचित.. तत्काल रचित श्लोक भावों की अमृत फुहार में भीगते हुए वायुमंडल में तैरने लगे। उन श्लोकों में मंत्र शक्ति थी, तंत्र शक्ति थी, एकाग्रता की शक्ति थी, पंचतत्त्वों पर नियंत्रण की शक्ति थी। आचार्यश्री के होठों से गति कर रहे ये मंत्राक्षर हृदय से अवतरित हो रहे थे। आचार्यश्री बाह्य दृष्टि से सर्वथा बेहोश थे। अन्तर की अपेक्षा से सर्वथा होश में थे। समर्पण और पूर्ण समर्पण की भागीरथी में डुबकियाँ लगा रहे थे। लोग स्तब्ध थे। गतिविधियाँ ठहर गई थी। कोई कुछ नहीं कर रहा था। और अचानक जैसे धरती फटी! जैसे बिजली कड़की। जैसे आसमान गिरा। जैसे विस्फोट हुआ। एक जबरदस्त आवाज के साथ चमत्कार हुआ। आचार्यश्री के द्वारा 11वीं गाथा के मंत्रगर्भित मंत्र गु फित विशिष्ट अक्षरों का उच्चारण हुआ उसी समय शिवलिंग फटा। परतें उतरती गई और भीतर से पार्श्वनाथ परमात्मा की प्रतिमा प्रकट हुई। लोग आंखें फाड़-फाड़ कर देख रहे थे। सम्राट हतप्रभ हो रहा था। स्तुति जारी थी, श्लोर्को की सघनता में और तीव्रता आ गई थी। धुंआ छंट गया था। प्रभु पार्श्वनाथ प्रकट हो गये थे। जय-जय उद्घोष निरन्तर हो रहा था। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने अपने उपपात में बैठे सम्राट विक्रम की जिज्ञासा का समाधान करते हुए इस घटना का रहस्य बताना प्रारंभ किया। यह प्रतिमा तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ प्रभु की है। इस प्रतिमा का निर्माण बहुत पहले अवंति सुकुमाल के पुत्र ने किया था। शुभ मुहूर्त में परमात्मा की प्रतिष्ठा भी उसी ने करवाई। राजा ने पूछा- प्रभो! यह अवंति सुकुमार किस राज्य का नरेश था? कहाँ का रहने वाला था? थोड़ा विस्तार से समझाये भगवन्। आचार्यश्री ने अपनी आँखें बंद कर इतिहास सागर के मोती परोसते हुए कहा- अवंति सुकुमाल नरेश नहीं एक श्रेष्ठी था। इसी उज्जैन का निवासी बहुत ऋद्धि थी। भद्रा माँ का लाडला इकलौता बेटा। जो पिता के अभाव में माता-पिता दोनों का प्रेम अपने लाडले पर लुटाया करती थी। उसकी शादी हुई थी बत्तीस कन्याओं के साथ। अपार भोग समृद्धि में जीता था वह कुमार। एक दिन उसके घर साधुओं का आना हुआ। रात्रि के प्रथम प्रहर में साधु परस्पर स्वाध्याय कर रहे थे। एक बोल रहा था, एक सुन रहा था। शास्त्रों का स्वाध्याय पास ही कक्ष में सोये हुए अवंति सुकुमाल के कानों में पड़ा। स्वाध्याय का वर्णन देवलोक की व्यवस्थाओं से संबंधित था। स्वाध्याय में नलिनीगुल्म देव विमान का विशिष्ट वर्णन उपस्थित हुआ। इस विमान की चर्चा के शब्द ज्योही अवंति के कानों में पड़े कि वह चौंका। उसे यह वर्णन परिचित प्रतीत हुआ। चिंतन करता रहा, शब्दों को मथता रहा, भावों में उतरता रहा और उसे जातिस्मरण ज्ञान हो आया। अपने पूर्व जन्म को प्रत्यक्ष देखने लगा। मैं इसी विमान से तो आया हूँ। क्या वह विमान था? क्या वह ऋद्धि थी? क्या सुख की विपुलता थी? वह दौड़ पड़ा। पहुंचा आचार्यश्री के चरणों में और निवेदन किया भगवन्। यह नलिनीगुल्म विमान में पुन: पाना चाहता हूँ? कैसे पा सकता हूँ? आचार्य सुहस्ति एवं आचार्य महागिरि ने उसे उपदेश देना प्रारंभ किया। धर्म समझाया। धर्म का परिणाम समझाया। धर्म का लक्ष्य समझाया। वह समझ गया। सुख पाने की कामना दुख है। यही बंधन है। असली आनंद तो मोक्ष में है। वह वैराग्य रंग में रंग गया। उसकी सोच बदल गई। अब न आसक्ति रही, न तिरस्कार। अब थी सम वत्ति संतुलन, सहजता। वह संयमी बन गया। उसी रात पावन सलिला क्षिप्रा नदी के पास श्मशान भूमि के एकान्त वातावरण में निश्चल हो साधना करने लगा। सर्प डंसने लगे। बिच्छुओं के डंक भी उसे अस्थिर न कर सके और वह तो चरम स्थिति थी उसकी धृति की, धैर्य की, समता की, दृढ़ता की, जब आये कुछ सियार और साधु को निर्जीव मानकर खाने लगे, नोचने लगे, साधु जाग गया था। उसने अभिग्रह लिया था, संकल्प किया था। यह तो परीक्षा थी उसे पूर्ण उत्तीर्ण होना था। और वह जीत गया। एक शरीर छोड़ा, एक शरीर पाया। आखिर छलांग लग ही गई। मुक्ति निकट हो गई। वह स्वर्गवासी हो फिर से नलिनीगुल्म विमान का स्वामी हो गया। उस देव को वह विमान मिलने से प्रसन्नता नहीं थी किंतु साधना अखंड रहने व मुक्ति-मंजिल की ओर चार कदम बढ़ने के कारण अतीव आनंद का अनुभव था। सम्राट विक्रम और सारी सभा आश्चर्य मिश्रित आनंद के साथ यह घटना सुन रही थी। आचार्यश्री ने घटना के सूत्र को आगे बढ़ाते हुए कहा- सुबह माँ भद्रा एवं पुत्रवधुओं ने जब मुनि अवंति सुकमाल के दर्शन करने चाहे तब उसे वाटिका में न पाकर प्रश्न किया- भगवन्! अवंति मुनि दिखाई नहीं दे रहे हैं? आचार्य ने गंभीर वदन के साथ कहा- माँ! यह जहां से आया था। वहीं चला गया। प्रभो। वह मंदिर किसने बनाया? सम्राट ने अधीरता पूछा। हाँ! मैं मूल बात पर लौट रहा हूँ। उस घटना के बाद संसार की असारता का बोध प्राप्त कर माँ भद्रा और उसकी इकत्तीस पुत्रवधुओं ने चारित्र ग्रहण कर लिया। गर्भवती होने के कारण एक पुत्रवधू चारित्र न ले सकी। पुत्र जन्म हुआ। महाकाल उसका नाम रखा गया। उसी महाकाल ने अपने पिता की स्मृति में उनके स्वर्गवास स्थल पर विशाल महाप्रासाद का निर्माण कराया, जिसमें अवंति पार्श्वनाथ परमात्मा को बिराजमान किया गया। चूंकि इस मंदिर का निर्माण महाकाल ने किया था इस कारण यह महाकाल मन्दिर भी कहलाता रहा। तबसे ये अवंति पार्श्वनाथ एक महान तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित होकर परमात्मा, परमात्म पद की प्रेरणा देने के साथ-साथ भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण कर रहे हैं।
राजा- भगवन! फिर अवंति पार्श्वनाथ का यह मंदिर शिवमंदिर और प्रतिमा शिवलिंग में कैसे रूपांतरित हो गई?
आचार्य- राजन्! धर्म तो एक है- वह है आत्मधर्म। उसका रास्ता भी एक है, वह है- अहिंसा, भेद कहीं नहीं है। धर्म में भेद तो हो ही नहीं सकता। भेद हमारे स्वार्थ में है, बस! जब स्वार्थ हावी हो जाता है तब धर्म हार जाता है। बहुत बार लोगों को लगता है कि धर्म जीता, पर हकीकत में धर्म हारता है, अधर्म जीतता है। यहाँ भी ऐसा ही हुआ। परिणाम यह हुआ कि प्रतिमाजी पर परत चढ़ा दी गई। इसे गोलाकार बना दिया गया। इस प्रकार शिवलिंग का स्वरूप पूजा जाने लगा। 200 वर्षों से पार्श्वनाथ प्रभु शिवलिंग के रूप में पूजे जा रहे हैं। आज परतें हट गई बाहर की और अन्तर का सत्य प्रकट हो गया।
भगवन! मैं जैन-धर्म को जानना चाहता हूँ, समझना चाहता हूँ और भगवन। मैं जैन-धर्म अपनाना चाहता हूँ। आप कृपा करें मुझ पर। में श्रमण तो नहीं बन सकता पर श्रमणोपासक बन कर अपने जीवन को कृतार्थ करना चाहता हूँ। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर का वदन चमक उठा। वे असीम आनंद से भर उठे। किसी एक नरेश को प्रतिबोध देना, उनके प्रायश्चित्त का हिस्सा था। अपनी मंजिल करीब पाकर वे परम प्रसन्नता में नहा उठे। उसी समय सम्राट विक्रमादित्य को अपने पास बलाया। उन्हें विधिपूर्वक पंचमंगल महाश्रुतस्कंध रूप नवकार महामंत्र प्रदान किया। सिर पर सूरिमंत्र से अभिमंत्रित कर वासक्षेप किया और उसी समय सारी सभा जय-जयकार कर उठी।
अवंति पार्श्वनाथ तीर्थ की जय!
अवंति पार्श्वनाथ भगवान की जय!
आचार्य सिद्धसेन दिवाकर की जय!!
विक्रमादित्य के जैनत्व की जय!!
जिनशासन देव की जय!!!
प्राचीन ज्ञान भंडार से प्राप्त एक हस्तलिखित पत्र के अनसार मध्यकाल में यवनों के आक्रमण से सुरक्षा हेतु परमात्मा-प्रतिमा को भंडार किया गया था। जिसे वि. सं. 1761 में प्रकट किया गया व प्रतिष्ठित किया गया। खरतरगच्छ के आचार्य जिनरत्नसूरि के शिष्य आचार्य श्री जिनचंद्रसूरि द्वारा उसी समय रचित स्तवन में परमात्मा के प्रकटीकरण का वर्णन होता है।
वर्षाकाल समाप्त हो रहा था और चातुर्मास की समाप्ति के साथ ही जैन मुनि एवं अन्य साधु समुदाय अपने-अपने चातुर्मास को सम्पन्न करते हुए, बड़भागी भारत भूमि पर यत्र, तत्र विचरण करने लगे थे। उस काल के जैन श्रमण संघ के प्रमुख आचार्य आर्य सुहस्तिगिरी एवं आर्य महागिरी के नेतृत्व में त्यागी मुनियों का एक बड़ा दल विहार करता हुआ इस परम पावनी नगरी उज्जयिनी की ओर बढ़ा चला आ रहा था। इस मार्ग पर आचार्य-द्वय को कुछ शुभशकुन हुए। इन्हें देखकर वे मन में प्रफुल्लित थे कि निश्चित ही देवकृपा से कोई महत् कल्याण मार्ग सम्पन्न होना होगा। आत्मकल्याण में रत और प्राणीमात्र के हित में लगे हुए इन आचार्यों एवं मुनिराजों के दल ने शीघ्र ही मार्ग तय किया। काफी दूर से ही नगर की विशाल अटटालिकाएँ गगनचुम्बी भवन एवं देवालयों पर फहराती ध्वजाएँ इस महानगरी की विशालता को दृष्टिगोचर करवा रही थी। नगर समीप आया जान श्रमण संघ ने, वहाँ अपने आवास की व्य
वस्था होने तक, मंदगति से प्रवाहित होने वाली, धीर-गम्भीर नदी क्षिप्रा के किनारे एक उपवन में विश्राम स्थल बनाया। तत्कालीन परम्परानुसार आचार्यश्री ने नगर में ठहरने हेतु भवन की खोजकर एवं उसके स्वामी से श्रमण संघ के साधुओं के यहाँ ठहरने की स्वीकृति ले आने के लिये पूर्वज्ञात श्राविका भद्रा सेठानी के यहाँ दो मुनिराजों को भेजा।
एक से बढ़कर एक सुन्दर व विशालकाय भवनों वाले इस नगर में भी भद्रा सेठानी का देवमान सदृश्य, अनुपम भवन मन को मोह लेने वाला था। जैन मुनिराजों को अपने भवन की ओर दूर से आता देख, भद्रा सेठानी अत्यन्त ही उत्साहपूर्वक उनके स्वागत एवं अभ्यर्थना करने की मन:इच्छा से नंगे पैर दौड़ी बाहर चली आई। अत्यन्त ही आदरपूर्वक मुनिभगवन्तों की वन्दना कर उनसे कुशलक्षेम पूछा। सुश्राविका को धर्मलाभ के आशीर्वचन देकर वरिष्ठ मुनि ने अपने पूज्य गुरुदेव की आज्ञानुसार अपने आगमन का मन्तव्य प्रगट किया। भद्रा जैसी सुशील नारी ने इसे अपना अत्यन्त ही सौभाग्य एवं मंगलमय पुण्योदय जानकर अत्यन्त ही विनीत भाव से उन्हें अपने विशाल भवन में ठहरने की स्वीकृति प्रदान की।
स्वीकृति की सूचना पाकर आर्यद्वय अपने समस्य शिष्यों के साथ नगर में प्रवेश कर इस भवन में पधारे। यहां आते ही सम्पूर्ण मुनि समुदाय अपने-अपने ध्यान तपस्या व स्वाध्याय में लीन हो गये। रात्रि को प्रतिक्रमण आदि उपासना से निवृत्त हो समस्त मुनिगण आर्य श्री महागिरी के पास जिनवाणी व शास्त्र वचन सुनने को बैठे। आचार्यश्री के श्रीमुख से निकल रही वह अमृतवाणी, रात्रि के एकान्त में दूर-दूर तक गूंज रही थी। इसी में प्रसंगवशात् देवलोक में स्थित नलिनीगुल्म विमान का वर्णन भी आया। (इसी नलिनीगुल्म विमान की अनुकृति पर राजस्थान का विश्व प्रसिद्ध स्थापत्य कला का अदभुत रुप लिये ‘राणकपुर’ जिनालय का निर्माण किया गया है)। इसी महल में अन्तःपुर में अपनी बत्तीस पत्नियों के साथ विषयभोग में रत एवं श्रमण संघ के अपने भवन में ठहरे होने की बात से अनभिज्ञ, अवन्ति सुकुमाल (जो पूर्व में इसी नलिनीगुल्म के वासी थे) के कानों में जब वह वर्णन सुनाई पड़ा तो तुरन्त उनकी चेतना को आघात लगा और यही आघात जातिस्मरण ज्ञान (अपने पूर्व भवों की स्मृति का मस्तिष्क में लौट आना) में परिवर्तन हो गया। तुरन्त वे सतर्क हो उठ खड़े हए। प्रतिहारियों को आवाज दी कि तलाश करो यह अमृतवाणी कहाँ बरस रही है? प्रतिहारियों ने उन्हें श्रमण संघ के उनके आवास में रुकने की सूचना दी। यह मालूम होते ही वह राजपुरुष तुरन्त ही अपनी वाहनशाला की ओर चल पड़ा जैसी स्थिति प्रलयकाल में इस पृथ्वी की हो जाती है, वैसी ही स्थिति अवन्ती सुकुमाल की हो रही थी। उस व्यतीत हो चुके सुख को स्मृति के दंश ने उसके कोमल मन को उद्वेलित कर दिया, प्रलोडित कर दिया। उस सुख की पुन: प्राप्ति को वह एक बालक की भांति मचल उठा। इस भारी मानसिक उद्वेलन की हालत में अवन्ती ने अपना शीश आचार्य श्री के चरणों में रख दिया।
‘हे भगवन्! जिस नलिनीगुल्म का शब्द चित्रण आपकी वाणी ने अभी-अभी किया वह इतना हूबहू था कि मानो आपने इस विमान को अवश्य ही देखा हो, अर्थात् आप भी पूर्व भव में इस विमान के वासी रहे हों।’
आचार्य भगवंत जिज्ञासु सुकुमाल से बोले- हे वत्स। जो कुछ मैनें कहा वह सिर्फ वही चित्रण है जो सर्वज्ञ तीर्थंकर श्री वर्धमानस्वामी ने अपने ज्ञान से देखकर फरमाया है।
विशिष्ट ज्ञानोपार्जन के कारण अब अवन्ती को यह भव निस्सार लगने लगा था। जैसे भी हो मुझे अपना पूर्व भव पुनः प्राप्त करना ही होगा, यह दृढ़ संकल्प वह ले चुका था। व्यथित हृदय से उसने आचार्यश्री को देखा, आचार्यश्री भी समझ चुके थे कि सत्य क्या है।
अवन्ती सुकुमाल की अधीर व उत्साही वाणी पुन: फुट पड़ी ‘हे तात मुझे अपने नलिनीगुल्म को पुन: प्राप्ति हेतु मुझे इसी क्षण मार्ग बतलाइये’।
“वत्स अधीर न हो सम्पूर्ण सुखों एवं अनन्त मुक्ति के मोक्ष सुख को देनेवाला एकमेव मार्ग है। चारित्र अंगीकार कर ज्ञान एवं दर्शन की लब्धि पाना, यह रत्नत्रयी ही तुझे अपनी अभिलाषा को पूर्ण करवा सकती है”
आचार्यश्री की गम्भीर ज्ञानवाणी मुखरित हुई।
इस अनिर्वचनीय आनन्द से अभिभूत सुकुमाल पुकार उठा ‘हे गुरुवर! मुझे इसी क्षण, इसी महामार्ग का पथिक बनाइये’।
अपार ज्ञान के धनी गुरुवर जान चुके थे कि यह आत्मा कल ही इस लोक से छूटकर जाने वाली है फिर भी उसकी दृढ़ता की परीक्षा लेने एवं परम्परा के अनुपालन हेतु उन्होंने कहा- ‘हे श्रेष्ठिपुत्र! इतना अधीर न हो चारित्रय मार्ग इतना सुखद नहीं है। कहाँ तेरे जीवन में असीम सुख और आनन्द है और कहाँ चारित्र अनुपालन का महादुष्कर कठोर मार्ग? इन सांसारिक सुखों का मोह त्याग अति ही कठिन है, अभी तेरी उम्र ही क्या जो तूं इस तरह का विचार करता है।
लेकिन आचार्यश्री के नाना तर्को के बाद भी अवन्ती सुकुमाल अपने निर्णय पर अटल रहा तो आचार्यश्री ने कहा कि ‘मैं तुझे कल प्रात: ही चारित्रय मार्ग में दीक्षित कर दूंगा किन्तु उसके लिए तुझे अपनी माता भद्रा की अनुज्ञा प्राप्त करनी होगी।
देवलोक के उस अनुपम, आनन्दकारी सुख को पाने की अप्रतिम अभिलाषा में डूबा देवता सदृश्य सुन्दर काया और कोमलपन का धनी यह युवा इस अनन्त सांसारिक वैभव और अपार सम्पत्ति का स्वामी आज सबको ठुकराकर महादुष्कर जीवन अंगीकार करने की अनुज्ञा लेने अपनी माँ के पास पहुँचा। असमय में अपने पुत्र को आया देख माँ व्याकुल हो उठी और ज्योंही उस ममतामयी नारी ने अपने इकलौते पुत्र की याचना सुनी तो हतप्रभ हो, वह करुणा से विचलित होकर वहीं गिर पड़ी।
‘माँ भद्रा और उन बत्तीस पत्नियों पर यह सुनते ही मानो भारी वज्रपात सा हुआ। सांसारिक माया मोह से विद्ध ये सन्नारियाँ इस आघात को न झेल पाकर तुरन्त मुर्छित अवस्था को प्राप्त हुई। उपचार पश्चात् चेतना लौटने पर सारा भवन इन तैंतीस प्राणियों के करुण क्रन्दन से चित्कार उठा। अवन्ति की दृढ़ता एवं सद्बुद्धि के प्रयासों के फलस्वरुप अन्तत: भद्रा को, अन्तरज्योति से वैराग्य धारी पुत्र को, अश्रुपूरित आँखों और रुद्ध कण्ठ से, एक उच्चतर महात्म्य वाले जीवन के लिये स्वीकृति प्रदान की। वे बत्तीस सुन्दर, सुकोमल एवं लावण्यमयी ललनाएँ अपने प्राणनाथ में हुए इस आकस्मिक परिवर्तन को देख स्तब्ध थी। उनकी प्रेमपुकार भी अपने प्राणप्रिय वल्लभ, अपने सर्वस्व को लुट जाता देख निरुपाय हो गई। शोकाकुल हृदय से, जब इन स्त्री रत्नों ने अपने प्रिय व दुलारे अवन्ति सुकुमाल को विदा दी, उस समय तक प्रभात बेला प्रारम्भ हो चुकी थी।
जिनके जीवन में दुःख परिषह और परिताप की छाया भी न पड़ी हो, जिनके जीवन में कष्टों और विपदाओं से परिचय भी न हो पाया था। जिन्होंने जीवन में दुलार, प्यार, आनन्द, सुख एवं भोग के सिवा कुछ भी न जाना हो वही अवन्ति सुकुमाल आज कठिन मार्ग के पथिक हो गए। जीवन भी कैसा विचित्र है। क्षणमात्र में मनुष्य क्या से क्या हो जाता है, कोई नहीं जान पाता। कर्मगति से चलित यह वीरपुत्र आज ब्रह्ममुहूर्त में महागिरि के सानिध्य में चारित्र मार्ग को अंगीकार कर अपनी माँ की कुक्षि को गौरव देकर धन्य हो गया।
मन के दृढ़ संकल्प के साथ इस नव दीक्षित मुनि अवन्तिसुकुमाल ने अपनी चारित्रक आराधना प्रारम्भ कर दी। दिनभर की साधना व तपस्या से क्लांत शरीर के साथ ही, अत्यधिक उपसर्ग सहने के लिये मुनि ने रात्रि पर्यन्त शमशान भूमि में काउसग्ग मुद्रा में ध्यान करने की आज्ञा आचार्य प्रवर से चाही। आचार्यश्री विशिष्ट ज्ञान के धनी थे, जो घटना निश्चित् थी उसे देखकर उन्होंने मुनि को अपनी स्वीकृति देकर विदा किया।
भयानक डरावनी अटवी के किनारे क्षिप्रा के उस पार स्थित श्मशान भूमि में जहाँ खुंखार प्राणी भी जाने में भयग्रस्त होता है, वहीं जाकर यह दृढ़व्रती पुरुषसिंह जाकर काउसग्ग मुद्रा में ध्यानस्थ खड़े हो गये। इधर रात्रि का प्रथम प्रहर बीता और उधर सियारों ने उत्पात प्रारम्भ किया। काउसग्ग ध्यान में रहे मुनिराज को निर्जीव जान सियारों ने उनके शरीर पर हमला बोलकर उन्हें नीचे गिरा दिया व उसी के टुकड़े-टुकड़े होने से ये मृत्यु को प्राप्त हुए। मरकर सुकुमाल का जीव एक दिवस के चरित्र, तप-ध्यान व साधना के सुप्रभात से अपने मनोवांछित देवलोक स्थित नलिनीगुल्म विमान में महाऋषि वाले देव के रुप में उत्पन्न हुए। इस प्रकार तमाम सांसारिक सुखों मे उत्पन्न हुए। इस प्रकार तमाम सांसारिक सुखों और प्रभोलनों को ठुकराकर ज्ञान, दर्शन, चारित्ररुपी मोक्षमार्ग की संयम, त्याग व तपस्या रुपी रत्नमत्री साधना के बल पर अवन्ति सुकुमाल ने अल्पकाल में ही अपनी लक्ष्यसिद्धि प्राप्त कर लिया।
दूसरे दिन प्रात: भद्रा सेठानी पुत्र वधुओं के साथ श्रमणसंघ व नूतन मुनिराज के दर्शन करने उपाश्रय (वाहनशाला) आई। आचार्यश्री के वन्दन उपरांत वहाँ अपने दीक्षित संसारी पुत्र की अनुपस्थिति ने भद्रा को चकित किया। जिज्ञासा व अन्तर के मोह के कारण भद्रा ने उनके विषय में आचार्य प्रवर से पूछा। घटना घटते ही अपने ज्ञानबल से जानने वाले आचार्यश्री गम्भीरता से बोले ‘सुकुमाल तो जहाँ से आया था वहीं चला गया है’। सुनते ही हाहाकार व करुण क्रन्दन मचा, उससे समस्त मुनि समुदाय जो सांसारिक व्यापारों से अविचलित रहता है, का भी दिल दहल उठा। कभी तो ललनाऐं अपने पति के वियोग के धक्के से उबर भी न पाई थी कि एकाएक मृत्यु के समाचार! हा क्रूरकाल तुमने हमारे साथ कैसा छल किया। हमारा जीवन अब कैसे कटेगा। थोड़े काल उपरान्त जब रुदन का प्रलाप थमा तब इन सुश्राविकाओं को प्रतिबोधित कर आचार्यश्री ने संसार के मिथ्यात्व का निरुपण कर धर्मसखा को ही अमर-अजर साथी बतालाया। संसार में सब कुछ छूट जाता है, सब कुछ नष्ट हो जाता है, एक धर्म ही वह तत्व है जो अनाशवन्त है। इस धर्मोपदेश के बीच ही सुकुमाल का भवावतरण वाला नलिनीगुल्म विमान का महाप्रभावी देव भी वहाँ आ प्रत्यक्ष हुआ। उसने भी सभी को प्रतिबोध देते हुए जिनधर्म की महत्ता का वर्णन करते हुए इसके सुप्रभाव से अपनी उच्चतम गति को प्राप्त होना समझा था। जीवन का सार चारित्रय अंगीकरण ही है। यह जानकर भद्रा सहित इकतीस बहुओं ने (एक मात्र गर्भवती को पत्नी को छोड़कर) दीक्षा अंगीकार कर कालपर्यन्त में सद्गति का वरण किया। कालान्तर में इसी गर्भवती रानी से उत्पन्न पुत्र श्री महाकाल को युवावस्था प्राप्त होने पर इन्हीं आर्य श्री महागिरी ने प्रेरणा देकर अपने देवलोकवासी पिता की स्मृति में एक जिनालय का निर्माण करने को प्रेरित किया। क्षणमात्र में संसार को ठुकराकर चारित्र पालकर सुख को पाने वाले अपने वीर एवं तेजस्वी पिता की स्मृति में एक जिनालय का निर्माण करने को प्रेरित किया। क्षणमात्र में संसार को ठुकराकर चारित्र पालकर सुख को पाने वाले अपने वीर एवं तेजस्वी पिता की स्मृति को अक्षुण्ण रखने के लिए महाकाल द्वारा वीर निर्वाण की दूसरी शताब्दी के आखिरी काल में निर्मित विशाल एवं भव्य जिनालय जो उसी श्मशान भूमि पर बनवाया था, वही आज के अवन्ती पार्श्वनाथ जिनालय का मूल पार्श्व जिनालय है।
पहली बार उज्जैन जाने का अवसर! गर्मी का समय था। श्री शान्तिनाथजी मंदिर के निकटवर्ती उपाश्रय में रुकना हुआ था। अवन्ति पार्श्वनाथ प्रभु के दर्शन की प्यास थी! उस दिन चाहने पर भी जाना नहीं हो पाया था। दूसरे दिन का मंगल प्रभात सुनहरी यशस्वी किरणों के साथ मनमानस में उतरा था। युवा मंडल साथ था! हम चार मुनि थे।
शहर से पश्चिम दिशा की ओर! नदी के किनारे! थोड़ी सी ऊँचाई लिए! मुख्य द्वार में प्रवेश किया। दो सीढी युक्त गलियारों से गुजरे! दुर से एक शिखर नज़र आया था। सोचा कि पार्श्वप्रभुका जिनालय यही है। समीप जाने पर पता चला कि इसमें तो शिवलिंग विराजित है। हाँलाकि वेदिका आदि वास्तु का पूरा निर्माण जिनमन्दिर के हिसाब से ही हुआ प्रतीत होता है! ठीक इसके सामने बनी सीढियों से नीचे उतरे। बाई ओर दो बार मुडे कि अवन्ति पार्श्वनाथ परमात्मा का दिव्य स्वरूप आंखों में छा गया। ठिठककर वहीं खड़े रहने का मन हुआ। मन हुआ कि निर्निमेष दर्शन करते रहें।
प्यासी आंखों को तृप्ति मिली! बैचेन मन को शान्ति मिली! क्लान्त हृदय को विश्राम मिला! बुद्धि को वैभव मिला! चिन्तन को आकाश मिला! मन को मीत मिला! दर्शन की प्यास बुझी!
परमात्मा के पास पहुंचे। प्रभु के आभामंडल ने मन को मोह लिया। नहीं लगा कि मैं एक प्रतिमा के दर्शन कर रहा हूँ। मन साक्षात् परमात्मा का अनुभव कर रहा था। भाव-जगत का तो दृश्य ही बदल गया था। अपने आपको समवशरण में महसूस कर रहा था। चित्त का अणु-अणु करुणा का धारा-प्रवाह अपने में बसा रहा था। परम स्वीकृति का चरम स्पर्श! अहो आनन्दम् की अमृत वर्षा! पलकों ने झपकना स्थगित कर दिया था। चेहरे में ऊर्जा का जैसे तीव्र व सातत्य आगमन हो रहा था!
कितना समय बीता! पता ही नहीं चला। पता करने का कोई कारण भी नहीं था। और यह महत्वपूर्ण नहीं कि समय कितना बीता था! महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि जितना भी समय बीता था। समग्रता से बीता था। उन क्षणों में वहीं था। पूर्णता के साथ वहीं था।
परमात्मा का आकर्षण तो था ही! समाज की विनंती जुड़ गई और चातुर्मास परमात्मा के सानिध्य में होने का अवसर मिल गया! नियमित रूप से मेरा प्रात:काल परमात्मा के दरबार में बीतता। कल्याण मंदिर का संगान होता! युवा वर्ग साथ होता! परमात्मा की भक्ति होती!
प्रार्थना करता- हे प्रभु! आप इस महान तीर्थ के महाराजा हो! आप का दरबार विशाल चाहिए। शिखरबद्ध भव्यता से परिपूर्ण कलात्मक प्रासाद चाहिए!
और एक अनूठी रात आई। उस रात्रि को जैसे प्रकाश बरसा! भवितव्यता ने संकेत के माध्यम से भविष्यवाणी की! मेरे कानों में शब्दों की बरसात हुई! बंद आंखों के सामने शिखरबद्ध भव्य जिनमंदिर का दृश्य उपस्थित हुआ! मैं चौका! क्योंकि यह दृश्य भविष्य में घटने वाली यथार्थ घटना को वर्तमान में प्रस्तुत कर रहा था!
प्रश्न हुआ कि यह दृश्य मुझे क्यों दिखा! मैं अर्थघटन करने लगा! मेरे चिंतन के अनुसार इस दृश्यात्मक घटना का यही प्रतिफल होना चाहिए कि समय आ गया है या आ रहा है। पुरुषार्थ करो! नियति तुम्हारे साथ है। इस संकेत ने मेरे शब्दों में दृढ़ता भरी! मैंने अपने भावों को समाज के सामने प्रस्तुत किया। सहज ही सारे निर्णय होने लगे। और आज जब मैं इस दिव्य प्रासाद को देखता हूँ तो मन खिल उठता है और मेरी प्रसन्नता इन शब्दों में परमात्मा के सामने अभिव्यक्त हो उठती है- प्रभो! तेरी महिमा के अनुरूप यह पावन प्रासाद बन पाया या नहीं! नहीं पता! पर तुमने मुझ जैसे एक सामान्य साधु को निमित्त बनाया! प्रभो! यह तुम्हारा अनंत-अनंत उपकार है! मैं परम कृतज्ञता के साथ श्रीचरणों में अपना हृदय अर्पण करता हूँ।
गच्छा! आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरिजी म. वीर संवत् 2522, विक्रम संवत् 2052, सन् 1995