तीर्थ परिचय
मंदिरों की नगरी के नाम से प्रसिद्ध उजैन नगरी में जहां-जहां भी नजर जाती है मंदिर ही मंदिर नजर आते हैं। जैन धर्म का भी इस नगर से हजारों वर्षों से ऐतिहासिक सम्बन्ध रहा है। यहां पर विराजित महान चमत्कारिक श्री अवन्ति पार्श्वनाथ तीर्थ का इतिहास भी परमात्मा के अतिशय और चमत्कारों से ओत-प्रोत है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर जैसे महान आचार्य ने कल्याण मंदिर स्तोत्र की रचना करके सम्राट विक्रमादित्य पर जैन धर्म की जो छाप छोड़ी वह इतिहास के पन्नों में अजर-अमर है।
ऐसे महान आचार्य द्वारा मंत्रों से प्रगट की गई श्री अवन्ति पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा आज जन-जन की आराध्य का केन्द्र बन चुकी है। श्रीपाल-मैना सुन्दरी ने भी इसी नगर में रहकर सिद्धचक्र की तपाराधना की तथा सात सौ कोढ़ियों का कोढ़ रोग मिटा।
सवा करोड़ जैन प्रतिमाओं एवं सवा लाख जैन मंदिरों के निर्माण करने वाले सम्राट सम्प्रति ने भी इस पावन भूमि पर जन्म लेकर अपने को धन्य बनाया। खरतरगच्छाधिपति पूज्य आचार्य श्री जैन मणिप्रभसूरीश्वरजी म.सा. के उपदेश से भव्य जिनालय का जीर्णोद्धार किया गया और मूलनायक श्री अवन्ति पार्श्वनाथ प्रभु की अत्यन्त चमत्कारिक प्रतिमा का बिना उत्थापन किये इस चमत्कारिक तीर्थ की भव्यातिभव्य प्रतिष्ठा जिस हर्षोल्लास से सम्पन्न हुई, उसने उज्जैन के स्वर्णिम इतिहास में एक पृष्ठ और जोड़ दिया।
समय के प्रभाव से उज्जयिनी का नामकरण भी उज्जैन हो गया। यह देवालय वर्तमान में भी अपने मूलस्थान क्षिप्रा के किनारे स्थित है। वास्तुकला या स्थापत्यकला की दृष्टि से पूर्ववर्ती मन्दिर में कुछ भी विशेष दर्शनीय नहीं था, क्योंकि अनेकानेक बार ध्वंस एवं निर्माण की प्रक्रिया में कोई विशेषता अक्षुण्ण रह पाना असम्भव ही होता है। मुख्य बात तो यहाँ के मूलनायक श्री पार्श्वनाथ जिनेश्वर की अद्भुत रुप वाली अलौकिक भावयुक्त व दर्शक के मन में अनिवर्चनीय आनन्द का सृजन करने वाली श्यामवर्णी ध्यानस्थ प्रतिमा की उपस्थिति है। देवालय के प्राचीन रुप को देखकर पूज्य खरतरगच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरिजी म. (तत्कालीन गणिवर्य) ने सन् 1995 में जीर्णोद्धार की महती प्रेरणा प्रदान की जिसे सकल संघ ने स्वीकार कर जीर्णोद्धार का निर्णय किया।
पूज्य खरतगरच्छाधिपति आचार्यश्री जिनमणिप्रभसूरिजी म. के मार्गदर्शन में विगत तेरह वर्षों से संगमरमर के उज्जवल-धवल पाषाणों से मूलनायक श्री अवन्ति पार्श्वनाथ प्रभु का उत्थापन किए बिना जीर्णोद्धार संपन्न हुआ। जिसका प्रतिष्ठा महामहोत्सव 18 फरवरी 2019 को भव्याति भव्य रूप से हुआ।
आज उज्जैन भारतवर्ष के हृदय प्रान्त मध्यप्रदेश का एक प्रमुख औद्योगिक, व्यावसायिक व धार्मिक केन्द्र है। लगभग 7 लाख की आबादी वाला यह शहर हिन्दू धर्म के शैव महावलम्बियों के लिए पावन पूज्य स्थल है। 12 ज्योतिलिंगों में से प्रमुख 4 स्थलों में यहाँ का महाकालेश्वर मन्दिर भी है। यहाँ प्रत्येक बारह वर्ष में कुम्भ मेला सिंहस्थ का आयोजन होता है।
अनेक गौरवशाली अतीत की महिमामयी गाथाओं को समेटे यह पुण्यक्षेत्र आपकी भी प्रतीक्षा एवं स्वागत में आतुर खड़ा है। न मालुम कब इस स्थान और पुण्योदय हुई आत्मा का सुन्दर योग किसी नये आत्म-कल्याण को प्रस्पर्श कर इस नगरी के गौरव द्वार में एक पुष्प की अभिवृद्धि कर दे
धर्म एवं अध्यात्म का जो अदभुत समन्वय मालवा देश के सुप्रसिद्ध नगर उज्जैन (उज्जयिनी) में हुआ है, वह बेजोड़ है और यह विशेषता हर काल में जिज्ञासु एवं धर्मप्रेमी मानवों को आकर्षित कर उन्हें यहाँ खींचती रही है। काल के सतत् प्रवाह में उत्थान-पतन के थपेड़ों में बारम्बार ध्वस्त होती एवं मानव-मन की अटूट जीजिविषा के फलस्वरुप पुन: निर्मित होती रही इस ऐतिहासिक नगर में उस काल में राजा सम्प्रति का शासन था। यह वही काल-खण्ड था जब एक ओर इस महानगरी में शैव व जैन धर्मो की पताकाएं बहुत तेजी से फहरा रही थी, वहीं व्यापार, व्यवसाय, कला, साहित्य व जीवन की विविध विधायें भी अपने चरमोत्कर्ष पर थी। परम पावनी क्षिप्रा के आँचल में सिमटी उज्जयिनी में जैन श्रावकों का एक बड़ा समुदाय भी यहाँ निवास कर यहाँ के समाज के विकास एवं अभिवृद्धि का एक प्रमुख अंग बना हुआ था। इसी समुदाय में सिरमोर थे श्रेष्ठी अवन्ती सुकुमाल, जो अपनी धर्मनिष्ठ माँ भद्रा एवं अपनी बत्तीस पत्नियों के साथ, नाना सुखों का उपभोग करते थे। अपनी सम्पत्ति एवं देवविमान सदृश्य महल के अधिपति होने के फलस्वरुप इनकी कीर्ति भरत खण्ड में सर्वत्र फैली थी।
वर्षाकाल समाप्त हो रहा था और चातुर्मास की समाप्ति के साथ ही जैन मुनि एवं अन्य साधु समुदाय अपने-अपने चातुर्मास को सम्पन्न करते हुए, बड़भागी भारत भूमि पर यत्र, तत्र विचरण करने लगे थे। उस काल के जैन श्रमण संघ के प्रमुख आचार्य आर्य सुहस्तिगिरी एवं आर्य महागिरी के नेतृत्व में त्यागी मुनियों का एक बड़ा दल विहार करता हुआ इस परम पावनी नगरी उज्जयिनी की ओर बढ़ा चला आ रहा था। इस मार्ग पर आचार्य-द्वय को कुछ शुभशकुन हुए। इन्हें देखकर वे मन में प्रफुल्लित थे कि निश्चित ही देवकृपा से कोई महत् कल्याण मार्ग सम्पन्न होना होगा। आत्मकल्याण में रत और प्राणीमात्र के हित में लगे हुए इन आचार्यों एवं मुनिराजों के दल ने शीघ्र ही मार्ग तय किया। काफी दूर से ही नगर की विशाल अटटालिकाएँ गगनचुम्बी भवन एवं देवालयों पर फहराती ध्वजाएँ इस महानगरी की विशालता को दृष्टिगोचर करवा रही थी। नगर समीप आया जान श्रमण संघ ने, वहाँ अपने आवास की व्य
वस्था होने तक, मंदगति से प्रवाहित होने वाली, धीर-गम्भीर नदी क्षिप्रा के किनारे एक उपवन में विश्राम स्थल बनाया। तत्कालीन परम्परानुसार आचार्यश्री ने नगर में ठहरने हेतु भवन की खोजकर एवं उसके स्वामी से श्रमण संघ के साधुओं के यहाँ ठहरने की स्वीकृति ले आने के लिये पूर्वज्ञात श्राविका भद्रा सेठानी के यहाँ दो मुनिराजों को भेजा।
एक से बढ़कर एक सुन्दर व विशालकाय भवनों वाले इस नगर में भी भद्रा सेठानी का देवमान सदृश्य, अनुपम भवन मन को मोह लेने वाला था। जैन मुनिराजों को अपने भवन की ओर दूर से आता देख, भद्रा सेठानी अत्यन्त ही उत्साहपूर्वक उनके स्वागत एवं अभ्यर्थना करने की मन:इच्छा से नंगे पैर दौड़ी बाहर चली आई। अत्यन्त ही आदरपूर्वक मुनिभगवन्तों की वन्दना कर उनसे कुशलक्षेम पूछा। सुश्राविका को धर्मलाभ के आशीर्वचन देकर वरिष्ठ मुनि ने अपने पूज्य गुरुदेव की आज्ञानुसार अपने आगमन का मन्तव्य प्रगट किया। भद्रा जैसी सुशील नारी ने इसे अपना अत्यन्त ही सौभाग्य एवं मंगलमय पुण्योदय जानकर अत्यन्त ही विनीत भाव से उन्हें अपने विशाल भवन में ठहरने की स्वीकृति प्रदान की।
स्वीकृति की सूचना पाकर आर्यद्वय अपने समस्य शिष्यों के साथ नगर में प्रवेश कर इस भवन में पधारे। यहां आते ही सम्पूर्ण मुनि समुदाय अपने-अपने ध्यान तपस्या व स्वाध्याय में लीन हो गये। रात्रि को प्रतिक्रमण आदि उपासना से निवृत्त हो समस्त मुनिगण आर्य श्री महागिरी के पास जिनवाणी व शास्त्र वचन सुनने को बैठे। आचार्यश्री के श्रीमुख से निकल रही वह अमृतवाणी, रात्रि के एकान्त में दूर-दूर तक गूंज रही थी। इसी में प्रसंगवशात् देवलोक में स्थित नलिनीगुल्म विमान का वर्णन भी आया। (इसी नलिनीगुल्म विमान की अनुकृति पर राजस्थान का विश्व प्रसिद्ध स्थापत्य कला का अदभुत रुप लिये ‘राणकपुर’ जिनालय का निर्माण किया गया है)। इसी महल में अन्तःपुर में अपनी बत्तीस पत्नियों के साथ विषयभोग में रत एवं श्रमण संघ के अपने भवन में ठहरे होने की बात से अनभिज्ञ, अवन्ति सुकुमाल (जो पूर्व में इसी नलिनीगुल्म के वासी थे) के कानों में जब वह वर्णन सुनाई पड़ा तो तुरन्त उनकी चेतना को आघात लगा और यही आघात जातिस्मरण ज्ञान (अपने पूर्व भवों की स्मृति का मस्तिष्क में लौट आना) में परिवर्तन हो गया। तुरन्त वे सतर्क हो उठ खड़े हए। प्रतिहारियों को आवाज दी कि तलाश करो यह अमृतवाणी कहाँ बरस रही है? प्रतिहारियों ने उन्हें श्रमण संघ के उनके आवास में रुकने की सूचना दी। यह मालूम होते ही वह राजपुरुष तुरन्त ही अपनी वाहनशाला की ओर चल पड़ा जैसी स्थिति प्रलयकाल में इस पृथ्वी की हो जाती है, वैसी ही स्थिति अवन्ती सुकुमाल की हो रही थी। उस व्यतीत हो चुके सुख को स्मृति के दंश ने उसके कोमल मन को उद्वेलित कर दिया, प्रलोडित कर दिया। उस सुख की पुन: प्राप्ति को वह एक बालक की भांति मचल उठा। इस भारी मानसिक उद्वेलन की हालत में अवन्ती ने अपना शीश आचार्य श्री के चरणों में रख दिया।
‘हे भगवन्! जिस नलिनीगुल्म का शब्द चित्रण आपकी वाणी ने अभी-अभी किया वह इतना हूबहू था कि मानो आपने इस विमान को अवश्य ही देखा हो, अर्थात् आप भी पूर्व भव में इस विमान के वासी रहे हों।’
आचार्य भगवंत जिज्ञासु सुकुमाल से बोले- हे वत्स। जो कुछ मैनें कहा वह सिर्फ वही चित्रण है जो सर्वज्ञ तीर्थंकर श्री वर्धमानस्वामी ने अपने ज्ञान से देखकर फरमाया है।
विशिष्ट ज्ञानोपार्जन के कारण अब अवन्ती को यह भव निस्सार लगने लगा था। जैसे भी हो मुझे अपना पूर्व भव पुनः प्राप्त करना ही होगा, यह दृढ़ संकल्प वह ले चुका था। व्यथित हृदय से उसने आचार्यश्री को देखा, आचार्यश्री भी समझ चुके थे कि सत्य क्या है।
अवन्ती सुकुमाल की अधीर व उत्साही वाणी पुन: फुट पड़ी ‘हे तात मुझे अपने नलिनीगुल्म को पुन: प्राप्ति हेतु मुझे इसी क्षण मार्ग बतलाइये’।
“वत्स अधीर न हो सम्पूर्ण सुखों एवं अनन्त मुक्ति के मोक्ष सुख को देनेवाला एकमेव मार्ग है। चारित्र अंगीकार कर ज्ञान एवं दर्शन की लब्धि पाना, यह रत्नत्रयी ही तुझे अपनी अभिलाषा को पूर्ण करवा सकती है”
आचार्यश्री की गम्भीर ज्ञानवाणी मुखरित हुई।
इस अनिर्वचनीय आनन्द से अभिभूत सुकुमाल पुकार उठा ‘हे गुरुवर! मुझे इसी क्षण, इसी महामार्ग का पथिक बनाइये’।
अपार ज्ञान के धनी गुरुवर जान चुके थे कि यह आत्मा कल ही इस लोक से छूटकर जाने वाली है फिर भी उसकी दृढ़ता की परीक्षा लेने एवं परम्परा के अनुपालन हेतु उन्होंने कहा- ‘हे श्रेष्ठिपुत्र! इतना अधीर न हो चारित्रय मार्ग इतना सुखद नहीं है। कहाँ तेरे जीवन में असीम सुख और आनन्द है और कहाँ चारित्र अनुपालन का महादुष्कर कठोर मार्ग? इन सांसारिक सुखों का मोह त्याग अति ही कठिन है, अभी तेरी उम्र ही क्या जो तूं इस तरह का विचार करता है।
लेकिन आचार्यश्री के नाना तर्को के बाद भी अवन्ती सुकुमाल अपने निर्णय पर अटल रहा तो आचार्यश्री ने कहा कि ‘मैं तुझे कल प्रात: ही चारित्रय मार्ग में दीक्षित कर दूंगा किन्तु उसके लिए तुझे अपनी माता भद्रा की अनुज्ञा प्राप्त करनी होगी।
देवलोक के उस अनुपम, आनन्दकारी सुख को पाने की अप्रतिम अभिलाषा में डूबा देवता सदृश्य सुन्दर काया और कोमलपन का धनी यह युवा इस अनन्त सांसारिक वैभव और अपार सम्पत्ति का स्वामी आज सबको ठुकराकर महादुष्कर जीवन अंगीकार करने की अनुज्ञा लेने अपनी माँ के पास पहुँचा। असमय में अपने पुत्र को आया देख माँ व्याकुल हो उठी और ज्योंही उस ममतामयी नारी ने अपने इकलौते पुत्र की याचना सुनी तो हतप्रभ हो, वह करुणा से विचलित होकर वहीं गिर पड़ी।
‘माँ भद्रा और उन बत्तीस पत्नियों पर यह सुनते ही मानो भारी वज्रपात सा हुआ। सांसारिक माया मोह से विद्ध ये सन्नारियाँ इस आघात को न झेल पाकर तुरन्त मुर्छित अवस्था को प्राप्त हुई। उपचार पश्चात् चेतना लौटने पर सारा भवन इन तैंतीस प्राणियों के करुण क्रन्दन से चित्कार उठा। अवन्ति की दृढ़ता एवं सद्बुद्धि के प्रयासों के फलस्वरुप अन्तत: भद्रा को, अन्तरज्योति से वैराग्य धारी पुत्र को, अश्रुपूरित आँखों और रुद्ध कण्ठ से, एक उच्चतर महात्म्य वाले जीवन के लिये स्वीकृति प्रदान की। वे बत्तीस सुन्दर, सुकोमल एवं लावण्यमयी ललनाएँ अपने प्राणनाथ में हुए इस आकस्मिक परिवर्तन को देख स्तब्ध थी। उनकी प्रेमपुकार भी अपने प्राणप्रिय वल्लभ, अपने सर्वस्व को लुट जाता देख निरुपाय हो गई। शोकाकुल हृदय से, जब इन स्त्री रत्नों ने अपने प्रिय व दुलारे अवन्ति सुकुमाल को विदा दी, उस समय तक प्रभात बेला प्रारम्भ हो चुकी थी।
जिनके जीवन में दुःख परिषह और परिताप की छाया भी न पड़ी हो, जिनके जीवन में कष्टों और विपदाओं से परिचय भी न हो पाया था। जिन्होंने जीवन में दुलार, प्यार, आनन्द, सुख एवं भोग के सिवा कुछ भी न जाना हो वही अवन्ति सुकुमाल आज कठिन मार्ग के पथिक हो गए। जीवन भी कैसा विचित्र है। क्षणमात्र में मनुष्य क्या से क्या हो जाता है, कोई नहीं जान पाता। कर्मगति से चलित यह वीरपुत्र आज ब्रह्ममुहूर्त में महागिरि के सानिध्य में चारित्र मार्ग को अंगीकार कर अपनी माँ की कुक्षि को गौरव देकर धन्य हो गया।
मन के दृढ़ संकल्प के साथ इस नव दीक्षित मुनि अवन्तिसुकुमाल ने अपनी चारित्रक आराधना प्रारम्भ कर दी। दिनभर की साधना व तपस्या से क्लांत शरीर के साथ ही, अत्यधिक उपसर्ग सहने के लिये मुनि ने रात्रि पर्यन्त शमशान भूमि में काउसग्ग मुद्रा में ध्यान करने की आज्ञा आचार्य प्रवर से चाही। आचार्यश्री विशिष्ट ज्ञान के धनी थे, जो घटना निश्चित् थी उसे देखकर उन्होंने मुनि को अपनी स्वीकृति देकर विदा किया।
भयानक डरावनी अटवी के किनारे क्षिप्रा के उस पार स्थित श्मशान भूमि में जहाँ खुंखार प्राणी भी जाने में भयग्रस्त होता है, वहीं जाकर यह दृढ़व्रती पुरुषसिंह जाकर काउसग्ग मुद्रा में ध्यानस्थ खड़े हो गये। इधर रात्रि का प्रथम प्रहर बीता और उधर सियारों ने उत्पात प्रारम्भ किया। काउसग्ग ध्यान में रहे मुनिराज को निर्जीव जान सियारों ने उनके शरीर पर हमला बोलकर उन्हें नीचे गिरा दिया व उसी के टुकड़े-टुकड़े होने से ये मृत्यु को प्राप्त हुए। मरकर सुकुमाल का जीव एक दिवस के चरित्र, तप-ध्यान व साधना के सुप्रभात से अपने मनोवांछित देवलोक स्थित नलिनीगुल्म विमान में महाऋषि वाले देव के रुप में उत्पन्न हुए। इस प्रकार तमाम सांसारिक सुखों मे उत्पन्न हुए। इस प्रकार तमाम सांसारिक सुखों और प्रभोलनों को ठुकराकर ज्ञान, दर्शन, चारित्ररुपी मोक्षमार्ग की संयम, त्याग व तपस्या रुपी रत्नमत्री साधना के बल पर अवन्ति सुकुमाल ने अल्पकाल में ही अपनी लक्ष्यसिद्धि प्राप्त कर लिया।
दूसरे दिन प्रात: भद्रा सेठानी पुत्र वधुओं के साथ श्रमणसंघ व नूतन मुनिराज के दर्शन करने उपाश्रय (वाहनशाला) आई। आचार्यश्री के वन्दन उपरांत वहाँ अपने दीक्षित संसारी पुत्र की अनुपस्थिति ने भद्रा को चकित किया। जिज्ञासा व अन्तर के मोह के कारण भद्रा ने उनके विषय में आचार्य प्रवर से पूछा। घटना घटते ही अपने ज्ञानबल से जानने वाले आचार्यश्री गम्भीरता से बोले ‘सुकुमाल तो जहाँ से आया था वहीं चला गया है’। सुनते ही हाहाकार व करुण क्रन्दन मचा, उससे समस्त मुनि समुदाय जो सांसारिक व्यापारों से अविचलित रहता है, का भी दिल दहल उठा। कभी तो ललनाऐं अपने पति के वियोग के धक्के से उबर भी न पाई थी कि एकाएक मृत्यु के समाचार! हा क्रूरकाल तुमने हमारे साथ कैसा छल किया। हमारा जीवन अब कैसे कटेगा। थोड़े काल उपरान्त जब रुदन का प्रलाप थमा तब इन सुश्राविकाओं को प्रतिबोधित कर आचार्यश्री ने संसार के मिथ्यात्व का निरुपण कर धर्मसखा को ही अमर-अजर साथी बतालाया। संसार में सब कुछ छूट जाता है, सब कुछ नष्ट हो जाता है, एक धर्म ही वह तत्व है जो अनाशवन्त है। इस धर्मोपदेश के बीच ही सुकुमाल का भवावतरण वाला नलिनीगुल्म विमान का महाप्रभावी देव भी वहाँ आ प्रत्यक्ष हुआ। उसने भी सभी को प्रतिबोध देते हुए जिनधर्म की महत्ता का वर्णन करते हुए इसके सुप्रभाव से अपनी उच्चतम गति को प्राप्त होना समझा था। जीवन का सार चारित्रय अंगीकरण ही है। यह जानकर भद्रा सहित इकतीस बहुओं ने (एक मात्र गर्भवती को पत्नी को छोड़कर) दीक्षा अंगीकार कर कालपर्यन्त में सद्गति का वरण किया। कालान्तर में इसी गर्भवती रानी से उत्पन्न पुत्र श्री महाकाल को युवावस्था प्राप्त होने पर इन्हीं आर्य श्री महागिरी ने प्रेरणा देकर अपने देवलोकवासी पिता की स्मृति में एक जिनालय का निर्माण करने को प्रेरित किया। क्षणमात्र में संसार को ठुकराकर चारित्र पालकर सुख को पाने वाले अपने वीर एवं तेजस्वी पिता की स्मृति में एक जिनालय का निर्माण करने को प्रेरित किया। क्षणमात्र में संसार को ठुकराकर चारित्र पालकर सुख को पाने वाले अपने वीर एवं तेजस्वी पिता की स्मृति को अक्षुण्ण रखने के लिए महाकाल द्वारा वीर निर्वाण की दूसरी शताब्दी के आखिरी काल में निर्मित विशाल एवं भव्य जिनालय जो उसी श्मशान भूमि पर बनवाया था, वही आज के अवन्ती पार्श्वनाथ जिनालय का मूल पार्श्व जिनालय है।
काल प्रभाव एवं तीर्थ महात्भ्य
कुछेक वर्षों के उपरान्त ही शैवमत के असहिष्णु तत्वों का प्रभाव बढ़ने से इस जिनालय को शिव मन्दिर में परिवर्तन कर इस भव्य एवं मनोहारी जिन प्रतिमा का विलेपन आदि कर शिवलिंग में रुपान्तरित कर दिया गया। लगभग दो शताब्दी तक यह जिनालय ‘शिवालय’ के रुप में पूजित होता रहा। इतिहास प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य (विक्रम संवत् के प्रवर्तक) के शासनकाल में इनके दरबार के नवरत्नों में से एक एवं इनके प्रतिबोधक एवं विद्वान आचार्यश्री सिद्धसेन दिवाकर जी महाराज द्वारा एक दिन इन्हीं सम्राट विक्रमादित्य के सम्मुख ही ‘कल्याण मन्दिर’ जैसे महाप्रभावी विघ्नहरण चमत्कारी एवं सर्व पेज नं. १० जीवों के कल्याण करने वाले दिव्य काव्य का विशिष्ट रचना पाठ (अपने अन्तर की गहराईयों एवं भक्ति की चरम भाव की सम्पूर्ण समर्पण वाली मन:स्थिति में हृदय के सर्वोत्तम सामंजस्य से प्रस्फुटित काव्य का उसी क्षण सस्वर पाठ) करते ही यह अलौकिक भावयुक्त श्यामवर्णीय पद्मासन में ध्यानस्थ प्रतिमा पुन: प्रगट हुई और इसके साथ ही जैन धर्म का विजय डंका बजने लगा एवं सम्राट में भी जैन श्रावक बने।
अवन्ति पार्श्वनाथ परमात्मा के संदर्भ में एक ऐतिहासिक स्तवन, जो आर्य मेहुलप्रभसागरजी म.को शोध से प्राप्त हुआ है। इस स्तवन की रचना खरतरगच्छ नायक आचार्य जिनरत्नसूरि के पट्टधर आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने की। इस स्तवन में अवंति पार्श्वनाथ परमात्मा के इतिहास का गुफन हुआ है। इस स्तवन में अवंतिसुकुमाल की कथा का वर्णन करते हुए उनके सुपुत्र महाकाल द्वारा प्रतिमा निर्माण व प्रतिष्ठा का उल्लेख किया है। इस प्रतिमा को शिवलिंग के रुप में पूजा गया, इस बात का उल्लेख करते हुए आचार्य श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरि द्वारा कल्याण मन्दिर स्तोत्र की रचना से प्रतिमा के प्राकट्य का वर्णन भी इस स्तवन की गाथाओं में पढ़ने को प्राप्त होता है। इस स्तवन के द्वारा एक नये तथ्य की जानकारी मिलती है कि जब यवनों का आक्रमण बहुत ज्यादा बढ़ गया था और यवन सेना बड़ी संख्या में मालव प्रदेश में आ रही थी। उस सेना का एक ही उद्देश्य था- मन्दिरों को नष्ट करना, प्रतिमाओं को खण्डित करना।
ऐसी स्थिति में उस समय उज्जैन के संघ ने गंभीर विचार कर परमात्मा अवंति पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा को भण्डार कर दिया था। भंडार करने का अर्थ है- भोंयरे में रखकर उस कक्ष को पूर्ण रुप से बंद कर देना, ताकि किसी को पता न चले कि यहाँ प्रतिमाएं हैं। यवन सेना से बचाव का यह तरीका था। आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने इस स्तवन में लिखा है कि वि.सं. 1761 में अवंति पार्श्वनाथ परमात्मा की प्रतिमा को पुन: प्रकट किया गया अर्थात् भंडार खोलकर बाहर लाया गया व मंदिर में विराजमान किया गया। इससे पता चलता है कि उस समय का संघ परमात्मा की सुरक्षा को लेकर कितना जागरुक था। जब खतरा टला, तब प्रकट किया गया।
परमात्मा का प्राकट्य महोत्सव व पुन: प्रतिष्ठा खरतरगच्छ के आचार्य जिनरत्नसूरि के शिष्य आचार्य जिनरत्नसूरि के शिष्य आचार्यश्री जिनचन्द्रसूरि की पावन निश्रा में उनके मंत्रोच्चारणों से किया गया था। इस प्राकट्य महोत्सव के समय ही इस स्तवन की रचना हुई होगी, ऐसा प्रतीत होता है।